अतिराष्ट्रवादी भावनाएँ और सैन्यवाद

अतिराष्ट्रवादी भावनाएँ और सैन्यवाद

उन्नीसवीं सदी के अन्त में जैसे-जैसे यूरोपीय राज्य स्थापित होने लगे उन देशों की सरकारों ने लोगों को अपने राष्ट्र को सर्वोच्च बनाने के लिए उकसाया। सारे राष्ट्र यही मानने लगे कि जिसके पास सबसे अधिक भूमि होगी, सबसे अधिक उपनिवेश होंगे वही सर्वशक्तिमान होगा और जो ऐसा नहीं करेगा उसे दूसरे ताकतवर देश कुचल देंगे। दूसरी ओर कई नए समुदाय जिनकी अपनी भाषा या धर्म था, अपने आपको राष्ट्र मानकर अपने लिए स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए संघर्ष करने लगे।

इनमें प्रमुख थे पोलिश, चेक, हंगरी, स्लाव तथा यहूदी। इनमें से किसी का अपना स्वतंत्र राज्य नहीं था। मध्य यूरोप में ऐसे अनगिनत समूह राष्ट्रवादी विचारों से प्रेरित होकर वर्तमान साम्राज्यों को तोड़कर अपने-अपने स्वतंत्र देश के निर्माण के लिए प्रयास करने लगे। इसका सीधा प्रभाव जर्मन, ऑस्ट्रियाई, रूसी तथा तुर्की साम्राज्यों पर पड़ा लेकिन समस्या यह थी कि एक ही भाषा बोलने वाले कई दूर-दूर के इलाकों में बँटे हुए थे।

हर राष्ट्र के लोग यह चाहने लगे कि इन सारे इलाकों को एक राष्ट्र के तहत लाया जाए। ऐसा करने में समस्या यह थी कि उन्हीं इलाकों में दूसरी भाषाएँ बोलने वाले भी रहते थे। इन सब बातों के कारण यूरोप की राजनीति में उथल-पुथल मचा रहा। देशों के अन्दर और एक-दूसरे के बीच तनाव लगातार बढ़ रहा था। सभी लोग यही मानने लगे कि इन सब समस्याओं का समाधान युद्ध के माध्यम से ही हो सकता है।

राष्ट्रीयता की संकुचित भावना, स्वार्थ, आर्थिक हित और कूटनीति इतनी बढ़ गई थी कि शान्ति की बात करना बेमानी हो गई थी। शान्ति और स‌द्भावना के स्थान पर आशंका, भय और द्वेष की भावना बढ़ गई थी। ऐसी स्थिति में शान्त चित्त से सोचना किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यन्त कठिन था। इस समय कई लोग डार्विन के सिद्धांत से प्रभावित थे और वे सामाजिक डार्विनवाद में विश्वास करते थे अर्थात् वे सोचते थे कि योग्यतम राष्ट्र ही बचेगा और उन्नति करेगा।

अतः यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि संघर्ष जीवन का प्राकृतिक नियम है और विकास के लिए आवश्यक है। विभिन्न राष्ट्र के लोग अपनी-अपनी संस्कृति को उत्कृष्ट समझते थे और कमज़ोर राष्ट्रों पर शासन करना अपना कर्तव्य मानते थे। इसी बहाने अन्य जातियों पर अपना प्रभाव स्थापित करने की चाहत से मानवता की भावना कमजोर पड़ने लगी और नरसंहार से लोगों की नैतिक भावना को अधिक ठेस नहीं पहुँचती थी।

अपने लाभ के लिए सैनिक बल के प्रयोग में कोई अनौचित्य नज़र नहीं आता था। जब सब लोग यही मानने को तैयार बैठे हों कि संसार हमारे लिए है. हमें सारी दुनिया पर राज करना है, विश्व में अपनी सभ्यता और धर्म का प्रचार करना है तो एक-दूसरे से टकराए बिना यह कैसे हो सकता है? युद्ध से कैसे बचा जा सकता है? समाचार पत्रों का जनमत को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण योगदान होता है।

प्रथम विश्व युद्ध के समय सभी देशों के समाचार पत्रों ने उग्र राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। इसके लिए उन्होंने घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया जिससे जनता में उत्तेजना बढ़ी और शान्ति समझौता करना कठिन हो गया। जब ब्रिटेन के समाचार पत्रों में कैसर विलियम द्वितीय की नीतियों की आलोचना की गई तो जर्मनी की जनता ने इंग्लैण्ड को अपना शत्रु समझ लिया। इसी प्रकार जर्मनी की जनता ने इंग्लैण्ड की जनता को उकसाया।

फ्रांस और जर्मनी के संबंध भी समाचार पत्रों के कारण बिगड़े। आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या के पश्चात् सर्बिया और ऑस्ट्रिया के समाचार पत्रों में एक-दूसरे के खिलाफ कटुतापूर्ण लेख लिखे गए। इससे दोनों देशों की जनता में द्वेष उत्पन्न हो रहा था।

सैन्यवाद भी अतिराष्ट्रवादी भावनाओं का परिणाम था। हर देश इस समय अपने सैनिक बल को बढ़ाने तथा अपनी सेना को अत्याधुनिक शस्त्रों से लैस करने में जुट गए। देशों के बीच होड़ सी लग गई थी कि किसके पास सबसे बड़ी सेना है? किसके पास सबसे अधिक युद्धपोत हैं? किसके पास सबसे अधिक तोप आदि हैं?

सैन्यवादी भावना न केवल शस्त्रभण्डार निर्मित कराती है, बल्कि आम लोगों में एक सैनिक मनोदशा भी विकसित करती है। एक खास तरह के अनुशासन की भावना विकसति करती है, जैसे शासन व अधिकारियों की किसी नीति पर प्रश्न न करना और उनकी सब बातों को स्वीकार कर लेना और जो आदेश दिया जाता है उसे पालन करना। यह लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है किन्तु सैन्य शासकों के लिए बहुत उपयोगी होता है।

सैन्यवाद एक तरह से लोकतंत्र को कमज़ोर करके अधिनायकवाद को सुदृढ़ करता है। इस प्रकार सैन्यवाद के दो विशेष पक्ष होते हैं एक ओर सैनिक शक्ति और शस्त्रों के अंबार को बढ़ाना और दूसरी ओर लोगों में राज्य की नीतियों को बिना सवाल किए स्वीकार करने के लिए तैयार करना। 29 20 16 13 40

तालिका 72 कुछ बड़े देशों का सैन्य खर्च सन् 1880 से सन् 1914 (करोड़ पौंड में) जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ब्रिटेन, रूस, इटली और फ्रांस

तालिका 2 में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार ये सभी बड़े देश युद्ध की तैयारी कर रहे थे और सेना व शस्त्रों पर खर्च लगातार बढ़ा रहे थे। केवल 14 वर्षों में सन् 1900 से 1914 के बीच सैनिक खर्च 20 करोड़ पौंड से दुगना हो गया। इन देशों में बहुत से कारखाने केवल शस्त्र उद्योग पर आधारित थे और बहुत से पूँजीपति उनमें यही सोचकर निवेश कर रहे थे कि युद्ध होगा तो इनकी माँग और बढ़ेगी और वे अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।


ऐसा नहीं था कि यूरोप के सारे लोग अपनी सरकारों के दावों को मानकर युद्ध करने के पक्ष में हो गए। यूरोप के देशों में युद्ध विरोधी धारा धीरे-धीरे विकसित हो रही थी जिसमें मुख्य रूप में मज़दूर आंदोलन और महिला अधिकार आंदोलन के लोग जुड़े हुए थे। उन्होंने यह कहकर युद्ध का विरोध किया कि यह लोगों की भलाई के लिए नहीं बल्कि शासकों के हित में था।

महिला आंदोलनों ने कहा हालांकि युद्ध करने का निर्णय पुरुष अपनी शान के लिए करते हैं पर इसका वास्तविक बोझ महिलाओं को ही ढोना पड़ता है। सन् 1914 में युद्ध के खिलाफ बोलने वालों में जर्मनी के कार्ल लाइब्नेक्ट, पोलैंड की रोज़ा लक्ज़म्बर्ग, रूस के लेनिन और ब्रिटेन की सिल्विया पैखर्स्ट प्रमुख थीं।

लेकिन सन् 1914 में युद्ध विरोधियों की आवाजें दबकर रह गई। जब युद्ध में हज़ारों लोग मारे गए या अपाहिज होकर घर लौटने लगे तो युद्ध की वास्तविकता सामने आने लगी और लोगों में विरोधी भावना प्रबल होने लगी।

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