नगरीय अधिवास
किसी भी नगर का विकास एक छोटे से अधिवास के रूप में होता है। धीरे-धीरे वह बढ़ता हुआ कस्बा, बाजार, नगर, महानगर एवं विशालकाय नगर का रूप धारण कर लेता है। किसी नगर का विकास निम्नांकित अवस्थाओं में होता है-
- पूर्व बचपन इस अवस्था में कुछ दुकान व मकान एक ही स्थान पर होते हैं। एक-दो सड़कें होती
हैं। सामान्य रूप से परिवेश ग्रामीण लगता है।
- शैशवावस्था- इस दशा में केन्द्रीय भाग की तरफ, व्यापारिक क्षेत्र बन जाता है। रहने योग्य नकान
में दुकानें बन जाती है।
- किशोरावस्था
व्यावसायिक क्षेत्र व्यवस्थित होने लगता है। जनसंख्या का प्रसार बाहर की ओर होने लगता है। इसमें नगर की सड़कें, गलियाँ अधिक विकसित होने लगती है।
प्रौढ़ावस्था इस अवस्था में नगर के आवासीय व औद्योगिक क्षेत्र, अलग दिखाई पड़ने लगते हैं। आवासीय क्षेत्र अनेक भागों में बंट जाते हैं। आबादी बढ़ने से बहुमंजिला मकान बनने लग जाते हैं।
- अधेड़ावस्था यह नगर के विकास व वैभव की चरमावस्था होती है। व्यापारिक, औद्योगिक आवासीय व प्रशासनिक क्षेत्र अलग हो जाते हैं।
- वृद्धावस्था यह नगर विकास की अंतिम दशा है जिसमें उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है। समरकंद, कुस्तुन्तुनिया, मुल्तान, बुखारा आदि इसी प्रकार के नगर हैं।
जनसंख्या के आधार पर नगरीय अधिवासों के प्रकार
- पुरवा या नगला लगभग 50 से 100 तक की जनसंख्या
- नगरीय गाँव 100 से 5,000
- कस्बा 5,000 से 10,000
- नगर 1 लाख से अधिक जनसंख्या।
- महानगर 10 लाख से 50 लाख तक जनसंख्या।
- वृहद् नगर 50 लाख से अधिक।
मानव सभ्यता के साथ नगर का विकासक्रम भी जुड़ा हुआ है। प्राचीन काल में नगरों का विकास व्यापार केन्द्रों के रूप में हुआ। सभी नगर गाँव के सदृश विकसित होते हैं। तत्पश्चात् वृहद् आकार लेते हैं। गाँव और नगर के बीच की इकाई को कस्बा कहा जाता है। जहाँ नगरों के समान सुविधाएँ मिलती है। यही कस्बा नगरों में परिवर्तित होता है।
वह अधिवास जिसमें अप्राकृतिक उत्पादन संबंधी क्रियाओं की प्रधानता पाई जाती है, वहाँ विनिर्माण, परिवहन, व्यापार तथा वाणिज्य, शिक्षा, बैंक, मनोरंजन एवं शासन-प्रशासन संबंधी कार्य किया जाता है, नगरीय अधिवास कहलाता है।