फसल उत्पादन का अर्थ कृषि से प्राप्त होने वाली उपज की मात्रा से है। विगत साठ वर्षों में कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। देश में अनाज का कुल उत्पादन 1950-51 में 51 मिलियन टन था जो 2010-11 में बढ़कर 244 मिलियन टन हो गया है। अनाज के उत्पादन में विगत 60 वर्षों में पाँच गुना वृद्धि हुई है।
इसी काल में जनसंख्या में तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई। 1951 में देश की जनसंख्या 36 करोड़ थी जो 2011 में बढ़कर 121 करोड़ हो गई है। इस प्रकार पिछले 60 वर्षों में जनसंख्या की तुलना में अनाज उत्पादन में अधिक वृद्धि हुई है। देश में 1950-51 में दाल का उत्पादन 8 मिलियन टन था जो 2010-11 में 18 मिलियन टन हो गया। इस काल में दाल के उत्पादन में लगभग दो गुना वृद्धि हुई। देश में 1950-51 में तिलहन का उत्पादन 5 मिलियन टन था जो 2010-11 में 32 मिलियन टन हो गया। यह पहले से छः गुना अधिक है। इस प्रकार देश में दाल के उत्पादन में कम वृद्धि हुई।
विगत साठ वर्षों में भारत में फसलों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। फसलों के उत्पादन में वृद्धि के कुछ आधारभूत कारण होते हैं जो निम्नलिखित हैं-
- निस बोए गए क्षेत्र में वृद्धि
- सिंचित भूमि में वृद्धि
- उत्पादकता में वृद्धि
निरा बोए गए क्षेत्र में वृद्धि बोए गए क्षेत्र का आशय उस भूमि से है जिस पर फसल बोई जाती है। यदि बोए गए क्षेत्रफल में वृद्धि हो तो उत्पादन में भी वृद्धि हो जाती है। भारत का क्षेत्रफल निश्चित है। इस निश्चित भूमि के अलग-अलग उपयोग हैं। इस कारण यदि खेती की भूमि बढ़ाते हैं तो दूसरी भूमि कम हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि कृषि भूमि का विस्तार करना हो तो जंगलों को साफ करना होगा। साठ वर्ष के आंकड़ों में हम कृषि भूमि में विस्तार देखते हैं। कृषि भूमि में यह विस्तार 1950 के दशक में ही हुआ है। इसके बाद विगत लम्बे समय से यह स्थिर अवस्था में है। थोड़ा बहुत फर्क परती भूमि के कारण एवं कृषि भूमि के अन्य उपयोग के कारण आता है।
सिंचित भूमि में वृद्धि : जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि कृषि हेतु भूमि का विस्तार नहीं कर सकते। किन्तु इसके उपयोग की बारम्बारता में एक सीमा तक वृद्धि की जा सकती है। सिंचाई की सुविधाएँ यही करती है। कृषि के लिए एक प्रमुख आवश्यक कारक पानी है, वर्षा काल में यह प्राकृतिक रुप से प्राप्त होता है जिससे अधिकांश भागों में कृषि की जाती है लेकिन बारिश के मौसम के बाद पानी के अभाव में अधिकांश भूनि परती पड़ी रहती है। फसल उत्पादन में वृद्धि के लिए सिंचाई की सुविधाओं का विकास किया गया। इससे कुछ भूमि पर वर्षा काल के बाद भी कृषि सम्भव हो पाई। 1950-51 में देश में कुल 21 मिलियन हेक्टेयर नूनि सिंचित थी। 2010-11 में इसमें तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई और यह 64 मिलियन हेक्टेयर हो गई। इसमें से कुछ भूमि ऐसी भी है जिस पर दो बार सिंचाई की सुविधा सम्भव है। यदि इस कुल कृषि भूमि को प्रतिशत में देखें तो 1950-51 में देश में 16 प्रतिशत भूमि सिंचित थी. 2010-11 में इसमें लगभग तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई और यह 45 प्रतिशत हो गई।
सिंचाई की सुविधा के विस्तार से उत्पादन में वृद्धि के लिए अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग किया जाने लगा तथा एक ही खेत में रबी एवं जायद मौसमों में उत्पादनों का विस्तार किया गया। इसके लिए पानी की आवश्यकता थी।
पानी की यह आवश्यकता बाँध एवं भूमिगत जल से पूरी की जा रही है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से इसका स्तर नीचे जा रहा है। पंजाब एवं हरियाणा में भूमिगत जल स्तर 4 से 6 मीटर नीचे चला गया।
इससे कई नलकूप सूख गए। इस प्रकार भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन किया जाए तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब सारे नलकूप सूख जाएँगे। इसलिए यह आवश्यक है कि हम उतने ही जल का उपयोग करें जितने का रिचार्ज सम्भव हो सके।
उत्पादकता में वृद्धि : उत्पादकता का आशय निश्चित भूमि पर फसल के उत्पादन से है। ऊपर हमने देखा
कि भूमि की मात्रा निश्चित है। इस पर सिंचाई की सुविधा का विस्तार भी निश्चित सीमा तक ही किया जा सकता है। इस कारण मानव ने प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि का प्रयास किया और उसमें एक सीमा तक सफल भी रहा। उत्पादकता में सर्वाधिक वृद्धि गेहूँ एवं मक्का की फसल में दर्ज की गई। देश में 1950-51 में गेहूँ की उत्पादकता 663 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जो 2010-11 में बढ़कर 2938 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई। इसी काल में मक्का की उत्पादकता 547 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से 2540 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई। इसके विपरीत दाल की उत्पादकता में गेहूँ और मक्का की तुलना में कम वृद्धि दर्ज की गई। देश में 1950-51 में दाल की उत्पादकता 441 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जो 2010-11 में बढ़कर 689 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई।
उत्पादकता में वृद्धि के लिए कई उपाय अपनाए गए। इसमें अधिक उपज देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों इत्यादि का प्रयोग किया गया। पहले पारंपरिक बीजों का उपयोग किया जाता था। इन बीजों का अनुसंधान कर नए अधिक उपज देने वाले बीज तैयार किए गए। पारंपरिक बीजों की तुलना में नए बीजों के प्रयोग से उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि हुई। हरित क्रांति का आधार उन्नत बीजों और उर्वरकों को माना जाता है। रासायनिक उर्वरक उत्पादकता में तात्कालिक वृद्धि का माध्यम है। 1965-66 में भारत में मात्र 76 लाख टन उर्वरकों का उपयोग किया गया था जो 2001-02 में बढ़कर 174 लाख टन हो गया।
उत्पादन में वृद्धि के चलते रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों का अधाधुंध प्रयोग किया गया। इस प्रयोग के दीर्घकालिक दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। इसके परिणास्वरुप भूमि की उत्पादक क्षमता में कमी आ रही है और खेत बंजर बनते जा रहे हैं। इसका सर्वाधिक उपयोग पंजाब में किया गया इसलिए सर्वाधिक दुष्परिणाम भी वहीं नजर आ रहे है। हमारे खान-पान में जहरीले तत्व शामिल हो गए हैं जिनसे कई बीमारियों फैल रही है। इस अँधेरे रास्ते से निकलने के लिए उत्पादक क्षमता को बढ़ाने के विकल्प ढूँढ़ने की जरूरत है।
उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक काफी महंगे होते हैं। इन कारणों से उत्पादन लागत में काफी वृद्धि हुई। भारत में अधिकांश सीमांत किसान हैं जो कि महँगी उत्पादन लागत वहन करने में अक्षम हैं। यदि किसान महँगी उत्पादन लागत के द्वारा भी फसल उत्पादन में निवेश करते हैं और किसी प्राकृतिक प्रकोप, कीट आदि से फसल नष्ट हो जाए तो किसान के पास कुछ नहीं बचता है। यदि फसल का उत्पादन हो भी जाए और फसल का उचित मूल्य बाज़ार से प्राप्त न हो तो भी किसान को नुकसान उठाना पड़ता है।