किसी भी देश या प्रदेश में मौजूद भूमि का विभिन्न तरीकों से उपयोग किया जाता है। किसी भाग पर खेती की जाती है तो अन्य भाग पर शहर बसे हैं या कारखाने लगे हैं, या फिर बनों से ढके हैं। किसी देश या प्रदेश के लोग अपनी भूमि का जो उपयोग करते हैं, उसे भूमि उपयोग कहा जाता है। यह उपयोग हमेशा एक जैसा नहीं होता है और समय के साथ बदलता रहता है।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी है परंतु इसके 93 प्रतिशत भाग पर ही भू-उपयोग का सर्वेक्षण किया गया है। नीचे दी गई तालिका में हम भारत के कुल भूमि का उपयोग किस तरह किया जाता है और यह देश की स्वंतत्रता के बाद किस तरह बदला है. यह देख सकते हैं।
वन भूमि : इस भूमि में वनस्पतियों की प्रचुरता वाले क्षेत्र सम्मिलित है जिसे वन कहा जाता है। इस वन का उपयोग लकड़ी, कंदमूल, जंगली फल, औषधियों, पशुचारण इत्यादि में किया जाता है। भारत में विगत साठ वर्षों में वन भूमि 14 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया। वन भूमि में यह वृद्धि 1970-71 तक हुई है। इसके बाद से वन भूमि लगभग स्थिर है।
हमें याद रखना होगा कि वन भूमि से आशय है वह भूमि जिसका उपयोग बनों के रूप में होना है यह जरूरी नहीं है कि इस पूरी भूमि पर वन हों। उदाहरण के लिए 2010 में देश के केवल 19.05 प्रतिशत जमीन वनों से ढ़की थी जबकि वनभूमि 23 प्रतिशत थी। जिस भूमि पर वन नहीं है सरकार के द्वारा वनरोपण कराया जाता है।
वनों से हमें लकड़ी आदि तो मिलती है मगर इनका महत्व इनके उत्पादन से कहीं अधिक है। वनों की एक विशेषता है कि ये वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण कर ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। इससे वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा स्थिर रहती है एवं ऑक्सीजन का नवीकरण होता है। ऑक्सीजन मानव एवं जंतुओं के श्वसन के लिए आवश्यक है। कार्बन डाई ऑक्साइड की स्थिरता वायुमण्डल के तापमान को स्थिर रखने में सहायक है। इस प्रकार वन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यही नहीं वनों के होने से हमारे जलस्रोत बने रहते हैं। वन हमारे वन्य जीवों का निवास है और वनों के नष्ट होने पर जंगली जानवर और वनस्पति हमेशा के लिए नष्ट हो जाएँगे।
पर्यावरणीय संतुलन की दृष्टिकोण से देश के कम से कम 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन होना चाहिए किंतु भारत में इस समय मात्र 23 प्रतिशत भू-भाग पर वन आवरण है। विभिन्न राज्यों के बीच वनावरण में भिन्नता पाई जाती है। छत्तीसगढ़ भारत के सबसे अधिक वनाच्छादित प्रदेशों में से है और इसकी लगभग 41.75 प्रतिशत ज़मीन पर वनों का आवरण है। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में केवल 5.7 प्रतिशत और ओडिशा के 31.36 प्रतिशत ज़मीन पर वनावरण है। उत्तर पूर्व के राज्य जैसे नागालैण्ड, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय आदि में सबसे अधिक वनावरण है लगभग 70 से 83 प्रतिशत ।
हमें याद रखना होगा कि वन भूमि से आशय है वह भूमि जिसका उपयोग बनों के रूप में होना है यह जरूरी नहीं है कि इस पूरी भूमि पर वन हों। उदाहरण के लिए 2010 में देश के केवल 19.05 प्रतिशत जमीन वनों से ढ़की थी जबकि वनभूमि 23 प्रतिशत थी। जिस भूमि पर वन नहीं है सरकार के द्वारा वनरोपण कराया जाता है।
वनों से हमें लकड़ी आदि तो मिलती है मगर इनका महत्व इनके उत्पादन से कहीं अधिक है। वनों की एक विशेषता है कि ये वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण कर ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। इससे वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा स्थिर रहती है एवं ऑक्सीजन का नवीकरण होता है। ऑक्सीजन मानव एवं जंतुओं के श्वसन के लिए आवश्यक है। कार्बन डाई ऑक्साइड की स्थिरता वायुमण्डल के तापमान को स्थिर रखने में सहायक है। इस प्रकार वन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यही नहीं वनों के होने से हमारे जलस्रोत बने रहते हैं। वन हमारे वन्य जीवों का निवास है और वनों के नष्ट होने पर जंगली जानवर और वनस्पति हमेशा के लिए नष्ट हो जाएँगे।
पर्यावरणीय संतुलन की दृष्टिकोण से देश के कम से कम 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन होना चाहिए किंतु भारत में इस समय मात्र 23 प्रतिशत भू-भाग पर वन आवरण है। विभिन्न राज्यों के बीच वनावरण में भिन्नता पाई जाती है। छत्तीसगढ़ भारत के सबसे अधिक वनाच्छादित प्रदेशों में से है और इसकी लगभग 41.75 प्रतिशत ज़मीन पर वनों का आवरण है। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में केवल 5.7 प्रतिशत और ओडिशा के 31.36 प्रतिशत ज़मीन पर वनावरण है। उत्तर पूर्व के राज्य जैसे नागालैण्ड, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय आदि में सबसे अधिक वनावरण है लगभग 70 से 83 प्रतिशत ।
उपवन भूमि इस वर्ग में ऐसी भूमि सम्मिलित की जाती है जिस पर बाग-बगीचे लगे होते हैं अथवा यह अनेक प्रकार के ऐसे पेड़ों वाली भूमि है जिनसे फल आदि प्राप्त होते हैं। भारत में पिछले 60 वर्षों में बगीचों के पेड़ों को काटकर इस भूमि को कृषि एवं अन्य उपयोग में लिया गया है। इस कारण विगत साठ वर्षों में यह 7 प्रतिशत से कम होकर मात्र 1 प्रतिशत रह गई है।
कृषि भूमिः हमारे देश के विशाल भाग पर खेती होती है और यह हमारे अधिकांश लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है। कृषि भूमि से ही हमें अनाज प्राप्त होता है और कुछ उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त होता है। भारत में 1950-51 में 42 प्रतिशत भाग पर कृषि भूमि थी जो आज के समय में 46 प्रतिशत है। कृषि भूमि का विस्तार 1970 से लगभग स्थिर है। सिंचाई के विस्तार के कारण उसी जमीन पर दो या तीन फसलें ली जा रहीं हैं लेकिन भारत के केवल 38.75 प्रतिशत कृषिभूमि सिंचित है और उसी पर एक से अधिक फसल ली जा सकती है।
अकृषि भूमि इसके अंतर्गत वो सारी जमीन गिनी जाती है जिस पर खेती नहीं की जा सकती है तथा जिसे गैर-कृषि उपयोग में लिया जाता है जैसे हिम आच्छादित पर्वत, रेत के टीले. मकान, दुकान, उद्योग, सड़क, रेलमार्ग, बाजार, खेल का मैदान, तालाब, नदियाँ, बाँध इत्यादि की भूमि। विगत वर्षों में औद्योगीकरण,
नगरीकरण एवं यातायात में वृद्धि के कारण अकृषि भूमि का तेज़ी से विस्तार हुआ है और राष्ट्रीय भूमि उपयोग में 1950 और 2010 के बीच इसका अनुपात 4 प्रतिशत से 9 प्रतिशत हो गया है। आज अकृषि कार्यों में जैसे औद्योगीकरण, नगरीकरण इत्यादि में कृषि भूमि को अधिग्रहण करने की माँग की जा रही है। किस तरह की कृषि भूमि का उपयोग इस प्रकार बदला जाए और किसानों को इसके लिए उचित मुआवजा कितना मिले इस पर आज गहन विवाद चल रहा है। अगर उपजाऊ बहु-फसली भूमि पर उद्योग लगे तो अनाज उत्पादन और देश की खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। अतः केवल कम उपजाऊ जमीन को इस तरह के काम में लिया जाना उचित है। इसी तरह किसानों को उनकी ज़मीन के बदले किस तरीके से मुआवजा दिया जाना चाहिए- इस पर भी विवाद चल रहा है। अगर किसी जमीन के उपयोग को बदला जाता है तो उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है। लेकिन किसानों का मुआवजा कृषि भूमि के आधार पर निर्धारित किया जाता है। इससे किसान को अपने जमीन के बढ़े हुए मूल्य का फायदा नहीं मिल पाता।
परती भूमिः अक्सर किसान कमज़ोर ज़मीन को पस्ती छोड़ देते हैं ताकि जमीन की उर्वरता पुनस्थापित हो। परती भूमि के दो भाग हो सकते हैं- वर्तमान परती भूमि और पुरानी परती भूमि। वर्तमान परती भूमि जो केवल एक वर्ष के लिए परती है। भूमि को एक वर्ष के लिए परती छोड़ने पर उसमें ह्यूमस की मात्रा में वृद्धि होती है जिससे उसकी उर्वरता बढ़ जाती है। पुरानी परती भूमि जो एक से अधिक वर्षों से परती है। पुरानी परती पर कृषि का विस्तार नहीं होने पर यह बंजर में परिवर्तित हो जाएगी। भारत में आज लगभग 8 प्रतिशत जमीन परती है।
बंजर भूमि इसमें दो प्रकार की भूमि सम्मिलित है, एक जिसमें कृषि की संभावना अत्यंत कम है जैसे बंजर पहाड़ी भू-भाग, खड्ड इत्यादि। दूसरी जिसमें भू-संरक्षण की विधियों से उसे वानिकी एवं कृषियोग्य बनाया जा सकता है। इसमें कुछ ऐसी भूमि भी है जिसमें पहले कृषि की जाती थी किंतु अब बंजर हो गई है। बढ़ती जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए इसका विकास किया जा सकता है। बंजर भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग, वन विभाग द्वारा अधिग्रहित किए जाने एवं उन्नत तकनीक से कृषि भूमि के रुप में परिवर्तित किए जाने के कारण विगत साठ वर्षों में यह भूमि 21 प्रतिशत से कम होकर 10 प्रतिशत रह गई है।
चराई भूमि: इसके अंतर्गत वह भूमि सम्मिलित की जाती है जो स्थाई चरागाह क्षेत्र तथा किसी भी प्रकार की चराई भूमि होती है। यह भूमि सार्वजनिक उपयोग के लिए है। यहाँ पशुओं को चराया जाता है एवं जलावन के लिए लकड़ी भी प्राप्त होती है। भारत में 1950-51 से 1970-71 में इसमें वृद्धि हुई किंतु विगत चालीस वर्षों में इसमें कमी आ रही है। इस भूमि के कम होने का प्रतिकूल असर सबसे गरीब परिवारों पर पड़ता है, जिनके लिए पशुपालन एवं कृषि जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन है। चराई भूमि के कम होने का एक प्रमुख कारण अतिक्रमण कर दूसरे कार्यों में उपयोग करना है।