युद्ध और सन् 1917 की क्रांतियाँ
दमनचक्र और सीमित सुधार के चलते कुछ वर्ष शान्ति बनी रही मगर सन् 1912 के बाद फिर से मज़दूरों की हड़ताल और किसानों के विद्रोह शुरू हो गए। इसी बीच 1914 में प्रथम विश्व युद्ध में रूस सम्मिलित हुआ। इसके तुरन्त बाद रूस में भी देशभक्ति की लहर उठी और लोग जार का समर्थन करने लगे।
लेकिन दो वर्षों के अन्दर लगातार हार और युद्ध की विभीषिका सहते हुए रूस के सैनिक, मज़दूर और किसान थक गए। चारों ओर ‘ज़मीन रोटी और शान्ति की माँग उठने लगी। 23 फरवरी 1917 (रूस में प्रचलित कैलेंडर और YFHI6F आधुनिक कैलेंडर के बीच 13 दिनों का अन्तर था।
वास्तव में यह घटना हमारे कैलेंडर के अनुसार 8 मार्च को घटी थी।) को महिला दिवस पर पेट्रोग्राड (राजधानी पीटर्सबर्ग का नया नाम) शहर की महिला मज़दूरों ने शान्ति और रोटी की माँग करते हुए एक जुलूस निकाला।
इसके तुरन्त बाद पूरे शहर में इन माँगों के समर्थन में मज़दूरों व सैनिकों के जलूस निकलने लगे और सैनिकों व पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कार्यवाही से मना कर दिया। हर कारखाने में मज़दूरों की सभाएँ हुईं जिनमें उन्होंने रूस के हालातों पर चर्चा की और अपने प्रतिनिधि चुनकर शहर में मज़दूर सभा गठित करने के लिए भेज दिया।
इन सभाओं को सोवियत (पंचायत जैसा एक रूसी शब्द) कहा जाता था। कारखानों के सोवियतों ने कारखानों का संचालन मालिकों से अपने हाथ में ले लिया। वे खुद निर्णय लेते और उनका क्रियान्वयन करते।
उनके प्रतिनिधियों से अपेक्षा थी कि वे सोवियत सदस्यों के विचारों के अनुरूप शहर सोवियत के कारखाने में काम करें, अन्यथा उन्हें बदलकर किसी और को प्रतिनिधि नियुक्त किया जाता था। इस तरह पेट्रोग्राड शहर का सोवियत बना। इसी तरह सैनिकों ने अपनी-अपनी टुकड़ी के सोवियत बनाए और अपने अफसरों को कैद कर दिया या उन्हें सैनिकों के कहे अनुसार चलने पर मजबूर किया।
गाँवों में किसान भी किसानों के सोवियत बनाने लगे और भूस्वामियों के महलों तथा दुकानों को लूटने लगे। इस प्रकार चन्द दिनों में जारशाही की सत्ता समाप्त हो गई और हर जगह लोग खुद की मर्जी से चलने लगे। देखते-देखते पूरे देश में दो-चार दिनों में ही पुराने शासन तंत्र का अंत हो गया और लोगों ने अपने-अपने तरीके से सत्ता अपने हाथों में ले ली।