वरसाई संधि के परिणाम

वरसाई संधि के परिणाम

यह संधि आधुनिक विश्व की संधियों में सबसे चर्चित संधि रही है। राजनयिक और अर्थशास्त्रियों ने इसकी कड़ी आलोचना की है। पहली बात तो यह है कि यह लोकतंत्र और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित न होकर विजयी राज्यों द्वारा हारे हुए राज्यों पर थोपी गई अपमानजनक संधि थी।

जर्मनी को कभी भी चर्चाओं में शामिल नहीं किया गया और उसकी आपत्तियों को दरकिनार करके उसे उस पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया गया। जर्मनी के नए शासकों का कहना था कि युद्ध के लिए जर्मनी की नवगठित लोकतांत्रिक सरकार ज़िम्मेदार नहीं थी। यह पुराने सम्राट और अलोकतांत्रिक राज्य का काम था।

अतः उसके किए का दण्ड नए लोकतांत्रिक राज्य को देना न्यायपूर्ण नहीं है। उल्टा इसका असर जर्मनी में लोकतंत्र को कमज़ोर कर देगा क्योंकि जर्मनी के लोग ऐसी सरकार का साथ नहीं देंगे जो इतनी अपमानजनक शर्तों को स्वीकार करे।

इसके विपरीत विजयी देशों की सरकारों ने अपने देशों में जर्मनी के विरुद्ध जनमानस में युद्ध उन्माद पैदा किया और बाद में इसी कथन पर चुनकर आये थे कि वे जर्मनी को नींबू की तरह निचोड़कर छोड़ेंगे ताकि वह कभी सर नहीं उठा सके। इस कारण वे जर्मनी के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं कर सके।

उनका मानना था कि जर्मनी ने सेना वापसी के दौरान जानबूझकर अपने कब्ज़े के इलाकों को तबाह किया था। उसने खुद रूस की क्रान्तिकारी सरकार से जब समझौता किया तब उसने रूस पर अत्यधिक कठोर शर्त लगाकर उसके बहुत बड़े इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया था।

इस संधि के बाद सभी को स्पष्ट हो गया कि इन शर्तों के रहते हुए जर्मनी के लोग इस व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं कर सकते हैं। इससे फिर से एक अन्य युद्ध की संभावना बढ़ जाएगी। उनका यह भी मानना था कि एक लोकतांत्रिक सरकार को ऐसी कठोर शर्तों को मानने पर मजबूर करना जर्मन लोगों के समक्ष उसे कमजोर करना है। इसका परिणाम यही होगा कि जर्मन लोग आगे ऐसे लोगों को चुनेंगे जो यह दावा करें कि वे जर्मनी के अपमान का बदला लेंगे और वरसाई की संधि को ठुकरा देंगे।

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