जैसे-जैसे संसाधनों का महत्व बढ़ा, उनपर नियंत्रण किसका हो. उनका उपयोग कैसे हो और किसकी भलाई के लिए हो? इन सवालों का जवाब विभिन्न समाज ने अलग-अलग तरीकों से निकाला। कई समाजों में संसाधनों पर अधिकार पूरे समाज के पास संयुक्त रूप से रहा और उनके उचित उपयोग के लिए
सामुदायिक नियम कानून बने। ज़मीन, जंगल, पानी के स्रोत पूरे समाज की साझी संपत्ति मानी गई। अक्सर ये समाज अपनी प्राकृतिक संसाधन को केवल भोग की वस्तु न मानकर उन्हें देवी का दर्जा दिया और मानने लगे कि ज़मीन, पेड़, नदी, समुद्र, जानवर, चट्टान आदि देवी-देवता हैं जो हमें आजीविका देते हैं। इस कारण समाज का कोई सदस्य संसाधनों का अनुचित उपयोग नहीं कर सका और सबकी उन तक पहुँच बनी रही।
कुछ समाजों में संसाधन सामुदायिक नियंत्रण में न होकर कुछ व्यक्तियों के हाथ में रहा। इनमें कुछ भूस्वामियों का जमीन पर स्वामित्व बना और वे सामान्य लोगों से उनपर काम करवाकर ज़मीन का लाभउठाते रहे। कुछ समाजों में कृषिभूमि और सिंचाई का प्रबंधन करने तथा उस क्षेत्र की रक्षा के लिए राजा बने जो किसानों से उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा करों के माध्यम से ले लेते थे।
इनमें अधिक संसाधनों का जटिल उपयोग हो पाया और मनुष्य की उत्पादक क्षमता बहुत बढ़ी। विशाल भवन, कलाकृति, नगर, व्यापार आदि इत्तके पहचान बने और उनका क्षेत्र विस्तार लगातार बढ़ते गया और वे विशाल साम्राज्य निर्मित कर पाए। लेकिन साथ-साथ इन समाजों में आंतरिक असमानताएँ बढ़ती गई और ऊँच-नीच, वर्गभेद, जातिभेद, गुलामी, औरतों को दोयम दर्जा आदि स्थापित हुए।
मानव इतिहास की अगली महत्वपूर्ण क्रांति आज से लगभग 250 वर्ष पहले शुरू हुई जिसे हम औद्योगिक क्रांति कहते हैं। इसके बाद कारखानों द्वारा उत्पादन की प्रक्रिया बहुत तीव्र गति से फैली। कारखानों के लिए कच्चा माल एवं ईंधन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कई गुना बढ़ गया। कारखानों को चलाने के लिए दुनिया के कोने-कोने से कच्चा माल मंगाया जाने लगा।
जो देश उन्नीसवीं सदी में औद्योगीकरण कर रहे थे वे विश्व के कोने-कोने में अपने वैज्ञानिक और भूगोल के विशेषज्ञों को भेजकर वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का पता लगाया और उनके दोहन के लिए मार्ग तैयार किया। इनकी यात्राएँ ‘खोजी यात्रा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन लोगों में यह विचार बना कि प्राकृतिक सम्पदा उद्योगों के लिए संसाधन हैं जिनका
भरपूर उपयोग करना चाहिए। संसाधनों का अधिक-से-अधिक उपयोग हमें भरपूर मात्रा में वस्तुएँ प्रदान करेगा और उनसे हमारा जीवन स्तर भी बढ़ सकता है। इससे हम नई-नई तकनीक के विकास से संसाधन की कमी को दूर कर पाएँगे। इस उपयोग को सुगम बनाने के लिए एशिया, अमेरिका और अफीका का उपनिवेशीकरण किया गया।
समस्या यह थी कि वहाँ के निवासी कबीलाई या कृषक समाज के थे और अपनी जमीन व जंगल का गैर-औद्योगिक और गैर-व्यापारिक उपयोग करते थे। वे प्रकृति को भोग की वस्तु नहीं मानते थे। कई जगह उसे देवी देवता भी मानते थे यानी जो एक समाज के लिए संसाधन था वह दूसरे समाज के लिए संसाधन नहीं था। ऐसे में दोनों के विचारों के बीच टकराव स्वाभाविक था।
उद्योगपति जंगल काटकर व्यापारिक फसल उगाना चाहते थे या जंगलों व खेतों की जगह खदान स्थापित करना चाहते थे या फिर नदियों पर बिजली बनाने के लिए बांध बनाना चाहते थे लेकिन पारंपरिक लोग अपने पुराने तरीकों से उनका उपयोग करते रहना चाहते थे। यह टकराव आज भी जारी है।
बीसवीं सदी के मध्य तक औद्योगिक अर्थशास्त्री व वैज्ञानिक यही मानते रहे कि प्राकृतिक संसाधन असीम हैं, उनका जितना दोहन करो उतना ही अच्छा है क्योंकि इससे समाज की उत्पादक क्षमता बढ़ेगी। समस्या केवल यह थी कि उनका पृथ्वी पर वितरण समान नहीं है कहीं प्रचुर मात्रा में है तो कहीं बिल्कुल नहीं है। अतः व्यापार के द्वारा उन्हें सभी देशों को उपलब्ध कराया जा सकता है।