मनुष्य प्राकृतिक दुनिया का एक अभिन्न अंग है और अन्य जीवों की तरह प्रकृति द्वारा दी गई चीजों (जैसे, हवा, पानी, फल-फूल तथा अन्य जीव आदि) का उपभोग करता आया है।
लेकिन मनुष्य अन्य जीवों से इस मायने में अलग है क्योंकि वह प्रकृति को सोच समझकर अपनी जरूरत के अनुरूप बदलता भी रहा है। वह प्रकृति से प्राप्त चीज़ों का उपयोग करके अपने लिए औजार बनाता है और औजारों को अन्य प्राकृतिक चीजों पर प्रयोग करके अपनी पसंद की चीजों का निर्माण या उत्पादन करता है।
इस उत्पादन कार्य में वह प्रकृति की जिन चीजों का उपयोग करता है उन्हें हम संसाधन कहते हैं।
उदाहरण के लिए प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य पत्थरों को तोड़कर एक निश्चित आकृति देता था और उन्हें औज़ार के रूप में उपयोग करता था। पत्थर के औज़ारों की मदद से वह शिकार करता, जमीन खोदकर कंदमूल इकट्ठा करता. टोकरी और खाल के कपड़े बनाता था यानी तब पत्थर, बांस. जानवरों के खाल आदि प्राकृतिक संसाधन बने।
समय के साथ मनुष्य के उत्पादन कार्य का दायरा बढ़ता गया और एक समय जब वह खेती और पशुपालन करने लगा, अर्थात निर्जीव वस्तुओं के साथ-साथ पेड़-पौधे, जानवर आदि सजीवों को भी बदलने लगा। उसने औज़ारों की मदद से पेड़ों को काटकर ज़मीन को समतल बनाया और उनमें चयनित बीजों को बोया।
बीज से पौधे बड़े हुए और उनमें फूल व फल आए जो आगे चलकर अनाज में बदले। अब इन पके फसलों को काटकर सुरक्षित रखने के लिए स्थायी घर और बस्तियों बनाकर रहने लगा।
आप सोच सकते हैं कि किस तरह मनुष्य द्वारा उपयोग किए गए संसाधनों की सूची बढ़ती गई और प्रकृति को बदलने की उसकी क्षमता बढ़ती गई। इतिहासकार इसी कारण खेती और पशुपालन की शुरुआती दौर को ‘नवपाषाण क्रांति’ कहते है।
यह आज से लगभग दस हजार साल पहले शुरू हुई थी। इसके साथ ही मनुष्य नई-नई तकनीकों पर महारत हासिल किया और तरह-तरह की वस्तुओं का निर्माण बड़े पैमाने पर होने लगा जैसे-मिट्टी को पकाकर बर्तन बनाना, रेशों से कपड़ा बुनना, तांबा, कांसा, लोहा आदि धातुओं से तरह-तरह की वस्तुओं का निर्माण करना आदि।