भीषण आर्थिक मंदी और कल्याणकारी सरकार
पिछले खण्ड में हमने देखा कि रूस ने पूँजीवादी औद्योगीकरण की जगह राज्य नियंत्रित औद्योगीकरण को अपनाया और संसदीय लोकतंत्र की जगह सोवियत शैली का लोकतंत्र स्वीकारा। वहाँ बहुदलीय चुनाव और वैयक्तिक लोकतांत्रिक अधिकारों को भी नहीं माना गया।
उसी समय ब्रिटेन व अमेरिका में संसदीय लोकतंत्र, बहुदलीय चुनाव और वैयक्तिक लोकतांत्रिक अधिकारों पर अधिक ज़ोर था। यह व्यवस्था बाज़ार आधारित पूँजीवादी औद्योगीकरण पर खड़ी थी और उसमें यह मान्यता थी कि लोकतांत्रिक सरकार को आर्थिक मामलों में दखल नहीं देना चाहिए।
अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बाज़ार पर छोड़ देना चाहिए। इस विचार को बहुत बड़ा धक्का सन् 1929 की भीषण मंदी से लगा और अपने आपको बदलने पर विवश हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद यह आशा की गई थी कि सभी देशों में तेज़ी से आर्थिक विकास होगा और 1919 के बाद ऐसा हुआ भी। लेकिन यह विकास 1923 के बाद कुछ थम-सा गया और 1929 में पूरी पूँजीवादी दुनिया में भीषण आर्थिक मंदी आई जो 1933 तक यानी चार साल तक बनी रही। हालाँकि उसके बाद फिर विकास का दौर शुरू हुआ लेकिन 1939 तक मंदी का असर बना रहा।
‘आर्थिक मंदी’ यानी क्या?
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में हमेशा एक जैसा विकास नहीं होता है। उसमें लगातार तेजी और मंदी के दौर एक के बाद एक आते रहते हैं
तेज़ी के समय पूँजी का निवेश बढ़ता है, उत्पादन बढ़ता है. मजदूरों को काम और वेतन भी अधिक मिलता है। इस कारण वे अधिक चीजें खरीद पाते हैं और चीज़ों की माँग और कीमतें बढ़ती हैं। इस कारण और अधिक पूँजी निवेश होता है… इस तरह तेज़ी का चक चलते रहता है।
इस खुशनुमा दौर के अंत में अकसर चीज़ों का अत्यधिक उत्पादन हो जाता है और वे बिक नहीं पाती हैं और माल की कीमत कम होने लगती है। जब ऐसी परिस्थिति में कोई अप्रत्याशित आर्थिक घटना घटती है तो लोगों का विश्वास डगमगा जाता है और मंदी का खतरा बढ़ जाता है।
पूँजीपति उत्पादन कम कर देते हैं जिससे मजदूरों को काम कम मिलता है और वे बेरोज़गारी का शिकार हो जाते हैं। अब वे और कम सामान खरीद पाते हैं। इसके चलते मंदी और गहरा जाती है। आम तौर पर आर्थिक मंदी का असर कम समय के लिए रहता है और फिर से तेज़ी की आशा रहती है। लेकिन 1929 की मंदी का असर कई साल तक रहा और पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया।
सन् 1925 से ही अमेरिका में मंदी के आसार उभरने लगे थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय जब यूरोप में कृषि प्रभावित रही अमेरिका के किसान ने उत्पादन खूब बढ़ाया जिसके लिए वे बैंकों से बहुत उधार भी ले रखे थे। लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद यूरोप में कृषि फिर से स्थापित हुई और उसने अमेरिका से अनाज खरीदना कम कर दिया। इस कारण अमेरिका में कृषि उपज की कीमतें घटने लगीं और किसान परेशान होने लगे। वे बैंकों की किश्त नहीं चुका पा रहे थे।
‘भीषण मंदी की शुरुआत 29 अक्टूबर 1929 के अमेरिकी शेयर बाज़ार में भारी गिरावट से हुई। शेयर बाज़ार में विभिन्न कंपनियों की हिस्सेदारी या शेयर खरीदे बेचे जाते हैं। अगर कंपनी मुनाफा कमा रही हो तो अधिक लोग उसके हिस्से खरीदेंगे और उनका दाम बढ़ जायेगा। अगर घाटा हो रहा हो तो जिनके पास उसके हिस्से हैं वे भी बेचने लगेंगे और खरीदने वाले नहीं होंगे।
ऐसे में उस कंपनी के शेयर की कीमत कम होने लगेगी। अक्टूबर 1929 में अमेरिका के निवेशकों ने पाया कि कोई कंपनी मुनाफा नहीं कमा रही थी और सभी घाटे में चल रहे थे। अचानक 29 अक्टूबर को सभी कंपनियों के हिस्सों की कीमत तेज़ी से घटती गई। जिनके पास शेयर थे वे बेचने के लिए आतुर थे मगर खरीददार नहीं थे।
बैंकों ने जो उधार दे रखे थे वे वापस नहीं हो रहे थे और बैंकों के पास नगद की कमी पड़ गई। ऐसे में जिन लोगों ने बैंकों में पैसे रखे थे वे अपना पैसा निकालने लगे. मगर बैंकों के पास देने के लिए पैसे नहीं थे। बैंकों का दीवालिया निकल गया और जिन्होंने उनमें पैसे डाल रखे थे उनकी जमा पूँजी गायब हो गई।
इसका कारण यह था कि अमेरिका में 1925 से 1929 तक जो तेजी हुई थी उस दौर में किसानों के उपज की कीमत या मज़दूरों का वेतन नहीं बढ़ा पर पूँजीपतियों का मुनाफा अत्यधिक मात्रा में बढ़ा। इस कारण जन सामान्य की खरीदने की क्षमता कम थी मगर उत्पादन बढ़ता गया। नतीजा यह हुआ कि माल की माँग कम होती गई और माल गोदामों में बन्द रहे।
माल न बिकने के कारण कीमतों में लगभग 32 प्रतिशत गिरावट आई। इसको देखते हुए उद्योगपति उत्पादन कम करने लगे जिस कारण मज़दूरों की छटनी होने लगी। लगभग 27 प्रतिशत मज़दूर बेरोज़गार हो गए। कारखानों में कच्चे माल की माँग कम होने और मज़दूरों की बेरोज़गारी के कारण कृषि उपज की माँग और कीमतें गिरने लगी।
किसानों को लागत से भी कम कीमत पर अपनी उपज बेचनी पड़ी और वे बरबाद हो गए और साथ में वे कंपनियाँ भी जो उन पर निर्भर थीं। औद्योगिक और कृषि संकट के चलते राष्ट्रीय आय कम हो गई।