रूसी क्रांति
युद्ध के पूर्व में
रूस: सन् 1914 तक रूस एक विशाल साम्राज्य बन चुका था जो यूरोप और एशिया महाद्वीपों के बीच फैला हुआ था। इसमें अनगिनत भाषा, धर्म और जातीयता के लोग अलग-अलग भागों में रहते थे जिन पर रूसी शासकों की हुकूमत थी। इस साम्राज्य में सत्ता अभिजात्य भूस्वामियों के हाथ में थी जिनका नेतृत्व वहाँ का निरंकुश शासक जार निकोलस द्वितीय (ज़ार यानी सम्राट) करता था। वह रोमानोव वंश का था। साम्राज्य के अधिकांश अधिकारी भूस्वामी ही थे।
YFFHGL सन् 1861 तक रूस में कृषकों को अर्द्धदास (सर्फ) के रूप में रखा गया था किसान ज़मीन से बँधे थे और वे बिना भूस्वामियों की आज्ञा के दूसरे काम-धंधे नहीं कर सकते थे या गाँव छोड़कर नहीं जा सकते थे। जब भूस्वामी अपनी जमीन किसी को बेचता था या देता था. तब ज़मीन के साथ किसानों को भी हस्तांतरित करता था।
1861 में ज़ार की एक घोषणा के द्वारा किसानों को इस प्रथा से मुक्ति तो मिली मगर अब भी जमीन भूस्वामियों के पास ही थी और किसानों को यह जमीन ऊँचे किराए पर मिलती थी। जार की पहल पर भूस्वामियों ने कुछ ज़मीन (जो आम तौर पर घटिया किस्म की थी) किसानों को दी मगर उसके लिए किसानों को बहुत बड़ी रकम चुकानी पड़ी।
शासन की ओर से यह रकम भूस्वामियों को चुकायी गई और किसानों को इसे किश्तों में पटाना था। जब तक वे इसे पटा नहीं देते उन्हें गाँव छोड़कर जाने की अनुमति नहीं थी। सन् 1917 तक कई पीढ़ियों बीतने पर भी किसान यह ऋण चुकाते रहे। कुल मिलाकर 1861 के सुधारों से भूस्वामी ही लाभान्वित हुए और किसान कानूनी रूप से आज़ाद तो हुए मगर आर्थिक रूप से और बुरे हालातों में फँस गए।
लेकिन रूस में किसी प्रकार के लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की आज़ादी के न होने के कारण किसानों के पास अपनी बात कहने या मनवाने के लिए कोई साधन नहीं थे। अभिजात्य भूस्वामी व जार मिलकर निरंकुश शासन चलाते थे जो एक बहुत सीमित वर्ग को ही लाभ पहुँचाता था। इस तरह आम किसानों की हालात सुधरने की जगह लगातार बिगड़ती गई।
आजीविका की खोज में कई किसान शहरों में बन रहे कारखानों में मज़दूरी करने गए और कई किसान जार की सेना में भर्ती हुए। इस तरह रूस में किसानों, मज़दूरों व सैनिकों के बीच एक गहरा संबंध बना।