संसाधन प्रबंधन

हमें अपने प्राकृतिक संसाधन के उपयोग को नियोजित कर इसका प्रबंधन करना होगा जिससे वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो और भविष्य के लिए संरक्षित भी किया जा सके और पारिस्थितिकीय (Ecology) संतुलन बना रहे। इसके लिए निम्नांकित उपाय किए जा सकते हैं।

वैकल्पिक संसाधनों पर जोर जिन संसाधनों से प्रदूषण अधिक होता है उनके वैकल्पिक संसाधनों पर जोर दिया जाना चाहिए। जैसे, जहाँ-जहाँ संभव हो कोयले का उपयोग न करके प्राकृतिक गैस का उपयोग करना चाहिए। लंबे समय के लिए उर्जा के स्रोत हेतु सौर ऊर्जा एवं पवन शक्ति का अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाना चाहिए। इसके लिए प्रोत्साहन और व्यवस्था बनाए जाने की जरूरत है।

  1. संसाधनों का नवीकरण करना इसे करने के लिए पर्यावरण सम्बंधित कई नियम और मापदंड बनाए गए हैं। इन नियमों का पालन करना एवं करवाना जरूरी है। उदाहरण के लिए-

कचरे को अलग-अलग करके पुनर्चक्रण करना।

उद्योगों पर अनिवार्य रूप से प्रदूषण नियंत्रण के उपकरण लगाने पर सख्ती।

अलग-अलग क्षेत्र अनुसार सरकार द्वारा सार्वजनिक वेस्ट ट्रीटमेंट संयंत्र लगाना।

विशेष प्रदूषक पदार्थों की जाँच करना और उन पर कड़ा नियंत्रण रखना जैसे- मरकरी (पारा),

लेड (सीसा), क्रोमियम आदि।

  1. संसाधनों का समुचित उपयोग आज जिस प्रकार भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करने की होड़ मची हुई है इससे संसाधन का बहुत दुरुपयोग हो रहा है। जिस प्रकार कुछ लोग जरूरत से ज्यादा संसाधनों का उपयोग अपने जीवनयापन के लिए करते हैं उसी प्रकार सभी मनुष्य करने लगे तो पृथ्वी की इस जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति के लिए चार पृथ्वी की जरुरत पड़ेगी। इस विषय पर गाँधी जी ने कहा था कि “हमारे पास हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी एक के लालच की संतुष्टि के लिए अपर्याप्त है।”

संसाधन प्रबंधन के नये मौके और चुनौतियाँ केस अध्ययन इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र

पंजाब में हरिके बांध से यह नहर निकाली गई है। यह थार मरुस्थल होते हुए पाकिस्तान की सीमा के समानांतर प्रवाहित होती है। इसके मुख्य नहरों की लंबाई लगभग 650 कि.मी. है जबकि सभी उपनहरों को मिलाकर इसकी कुल लंबाई 9060 कि. मी. है। इसके द्वारा प्रस्तावित सिंचाई क्षेत्र 20 लाख हेक्टेयर है। इसे इसका कमान क्षेत्र कहा जाता है।

यह थार मरुस्थल का क्षेत्र है जहाँ एक जगह से दूसरी जगह उड़कर जानेवाले रेत के टीले पाए जाते हैं। मरुस्थलीय क्षेत्र होने के कारण वनस्पतियाँ नगण्य है अतः हवा द्वारा मिट्टी का कटाव अधिक है। गर्मी में यहाँ का तापमान 50 अंश सेल्सियस तक हो जाता है। औसत वार्षिक वर्षा की मात्रा 10 मि.मी. से भी कम होती है।

विकास कार्य : चरण एक के कमान क्षेत्र में सिंचाई 1960 से प्रारंभ हुई जबकि चरण दो की शुरुआत 1980 से हुई है। नहर से मरुक्षेत्र हरा-भरा और नम हो गया है जिसके कारण मिट्टी का कटाव कम हो गया है। वनीकरण और चरागाहों का विकास हुआ है। सिंचाई की गहनता का प्रभाव यह है कि इन क्षेत्रों में कभी

चना, बाजरा और ज्वार की खेती होती थी वहाँ अब गेहूँ, कपास और मूंगफली की खेती होने लगी है। इसके साथ ही प्रति हेक्टेयर उत्पादन में भी वृद्धि हुई। लेकिन कुछ नकारात्मक प्रभाव भी दिखाई पड़ने लगे हैं। सघन सिंचाई के कारण और जल के अत्यधिक प्रयोग के कारण जल भराव एवं मृदा लवणता की समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।

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