पिछले पचास वर्षों में पर्यावरण का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने इस विचार पर प्रश्न उठाए हैं। उदाहरण के लिए 1950 के दशक में अमेरिका के कई क्षेत्र के लोगों ने पाया कि उनके इलाके में पक्षियों की चहचहाहट नहीं सुनाई दे रही है न ही वे कीट पतंगों व मधुमख्खियों की भुनभुनाहट सुन पा रहे हैं।
पता चला कि वे लगातार रासायनिक दवाओं के छिड़काव के कारण खत्म हो गए हैं। 1962 में रैचैल कार्सन ने अपनी पुस्तक ‘निस्तब्ध वसंत’ (‘साइलेंट स्प्रिंग’) में लिखा है के पक्षियों व कीटपतंगों की चुप्पी के पीछे कीटनाशकों का भयावह प्रभाव है जो ननुष्यों पर भी पड़ रहा है। मच्छरों के नियंत्रण के लिए उपयोग किए जाने वाले डी.डी.टी. का जहर झीलों में रहने वाली मछलियों के शरीर में पहुँच जाता है।
नहर की इस छोटी सी मात्रा से कुछ मछलियाँ मर जाती हैं और कुछ जिंदा रह’ नाती है। किंतु जब उन्हीं मछलियों को इंसान और पक्षी खाते हैं तो उनके भीतर ली रसायन की मात्रा उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए पर्याप्त होती है। रैचैल के बोज इस बात के स्पष्ट उदाहरण हैं कि किस प्रकार मनुष्य की क्रियाओं का विपरीत प्रभाव स्वयं मनुष्य और प्रकृति पर पड़ता है। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद विश्व के वैज्ञानिकों ने औद्योगिक विकास का कृति पर पड़ने वाले प्रभाव पर शोध करने लगे।
पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि प्राकृतिक सम्पदा एक विशाल ताना-बाना है जिसके किसी छोटे से वा को हानि पहुँचाने से पूरे तंत्र पर प्रभाव पड़ता है। प्रकृति का हर हिस्सा चाहे वह निर्जीव जल, हवा एट्टान या मिट्टी हो या कीट-पतंग, पक्षी, मानव या फसल जैसे सजीव हों सभी एक दूसरे से जुड़े र एक पर हो रहे क्रिया से सभी देर सबेर प्रभावित होंगे। अगर हम कीड़ों को मारने के लिए रासायनिक टनाशकों का प्रयोग करते हैं तो वह न केवल कीड़ों को मारते हैं मगर अनाज के माध्यम से हमारे शरी भी प्रवेश कर जाते हैं और उन फसलों के भूसे खाने वाले जानवरों के शरीर में प्रवेश करते हैं। हमा बर मे वे धीरे-धीरे संचयित होते रहते हैं और कैंसर जैसे लंबे समय की बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं।