संसाधन और विकास

प्राकृतिक संसाधन विकास के मूल आधार हैं क्योंकि कृषि, खनन, निर्माण तथा उर्जा क्षेत्र में उत्पादन बड़े तौर पर प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता है। अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र भी विभिन्न स्तरों पर प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर होते हैं। इन संसाधनों को उपलब्ध कराने की पर्यावरण की क्षमता को “पर्यावरणीय स्रोत प्रकार्य” (Environment’s Source Function) कहा जाता है।

ये कार्य उस समय शिथिल हो जाते हैं जब संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो जाता है या प्रदूषण संसाधनों को बिगाड़ देता है। अगर हम अनवीकरणीय संसाधनों का नियंत्रित उपयोग न करें या नदी नालों व हवा का प्रदूषण न रोकें तो जल्द ही विकास के लिए ज़रूरी संसाधन नहीं मिलेगा और विकास में रूकावट आ जाएगी। हमें विकास का ऐसा मार्ग अपनाना होगा जो प्राकृतिक संसाधनों को

लंबे समय तक स्वस्थ स्थिति में उपलब्ध रखे विकास और खुशहाली को लंबे समय के लिए अर्थात टिकाऊ बनाए रख पाए। इसी को टिकाऊ विकास’ या ‘टिकाऊ खुशहाली कहते हैं।

इसका मतलब यह है कि विकास और प्राकृतिक पर्यावरण के बीच विरोधाभास हो यह जरूरी नहीं है। न ही विकास के कारण संसाधन हमेशा के लिए नष्ट किए जाएँ। अगर हम अपने पर्यावरण को बेहतर समझें तो हम विकास के लिए टिकाऊ प्रबंधन भी कर सकते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इसके लिए पर्यावरण की शुद्धीकरण क्षमता या सिंक कैपेसिटि की अवधारणा विकसित की है। पर्यावरण में इतनी क्षमता होती है कि एक सीमा तक प्रदूषण किया जाए तो वह उसे समाहित करके हानिरहित कर सकती है। उदाहरण के लिए अगर हम बहती नदियों में घरेलू कचरा बहाते हैं तो नदी के जीव जन्तु उन्हें अपना भोजन बनाकर पचा लेते हैं और फिर से पानी उपयोग करने लायक बना रहता है अगर हम अत्यधिक मात्रा में नदी की क्षमता से अधिक गंदगी प्रवाहित करें तो साफ पानी वाली नदी गंदा नाला बन जाएगी। आज हमारे प्रमुख शहरों के पास बहने वाली नदियों का यही हाल हो रहा है। यही नहीं आज हम नदियों में कई ऐसे तत्व डालते हैं जिन्हें पचाने की क्षमता नदी में नहीं है। उदाहरण के लिए साबुन के अपशिष्ट। ये पानी में बने रहते हैं और अंत में समुद्र में जाकर मिल जाते हैं और धीरे-धीरे समुद्री जल को प्रदूषित करते हैं।

गाँवों में लकड़ी से जलने वाले चूल्हे और फैक्ट्री से निकलने वाले धुएँ की तुलना करें तो चूल्हे से निकलने वाला धुओं की मात्रा नवीकृत होने की सीमा से कम होती है। किन्तु फैक्ट्री से अधिक एवं निरंतर धुआँ निकलता रहता है, जो नवीकृत होने की मात्रा से अधिक हो तो वायु प्रदूषित हो जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि फैक्ट्री हमेशा वायु को प्रदूषित करेगी ही। यदि फैक्ट्री से नवीकृत सीमा तक ही घुर्जी निकले तो वायु प्रदूषित नहीं होगी।

पर्यावरण के द्वारा अपशिष्ट पदार्थ को अवशोषित करने की इस क्षमता को “सिंक क्षमता” कहा जाता है। जब अपशिष्ट निर्धारित सिंक कार्यों की सीमा से अधिक हो जाते हैं तो पर्यावरण को दीर्घकालीन हानि पहुँचती है।

उदाहरण-1 भारत में भूजल की स्थिति पर वर्तमान आँकड़े हमें सुझाते हैं कि देश के अनेक भागों में इसके उपयोग की अधिकता से इसके लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। पुनर्भरण से जितना जल वापस भूमि में जाता है उससे कहीं अधिक भूजल का उपयोग किया जा रहा है जिसके कारण लगभग 300 जिलो में पिछले 20 वर्षों में जल स्तर में 4 मीटर तक की कमी आई है। यह स्थिति खतरे का संकेत है। भू-जल के उपयोग की अधिकता विशेष रूप से पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कृषि समृद्ध क्षेत्रों, केंद्रीय और दक्षिणी भारत के कठोर चट्टानी पठारी क्षेत्रों तथा कुछ तटीय क्षेत्रों और तेजी से विकसित होने वाले शहरी क्षेत्रों में भू-जल का अत्यधिक उपयोग होता है। जल के उपयोग की इस अधिकता से भू-जल का संग्रह कम हो जाएगा और बहुत ही तीव्रता से इसकै स्तर में भी कमी होती जाएगी।

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