ग्रामीण अधिवास
इस अधिवास में अधिकतर किसान निवास करते हैं। इनका प्रमुख कार्य कृषि से संबंधित होता है किन्तु स्थानीय कारीगर जैसे बढ़ई, लोहार, कुम्हार, नाई, धोबी, जुलाहे आदि सार्वजनिक कार्य करते हैं। कृषि प्रधान अधिवास में मुख्य बसाहट से हटकर कुछ घरों के समूह होते हैं, उन्हें पुरवा टोला, पारा, आदि नामों से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में पारा, डीह, मजरा के नामों का प्रचलन है। इन गाँवों में अनेक सामाजिक सुविधाएँ सुलभ रहती हैं जैसे सार्वजनिक कुआं, तालाब, मंदिर, मस्जिद स्कूल, पंचायत, डाक घर चिकित्सालय क्रय-विक्रय केन्द्र, पुलिस थाना आदि।
भारत में ग्रामीण अधिवासों के निम्न प्रकार मिलते हैं :-
- सघन अधिवास
- विखंडित अधिवास
- पल्ली-पुरवा अधिवास
- प्रकीर्ण अथवा बिखरे अधिवास
- सघन अधिवास इन अधिवासों में मकान पास-पास व सटकर बने होते हैं। इसलिए ऐसे अधिवान में सारे अधिवास किसी एक केन्द्रीय स्थल पर संकेन्द्रित हो जाते हैं। यह आवासीय क्षेत्र खेतों व चरागा से दूर होते हैं। इन आवासों का वितरण उत्तर गंगा, सिन्धु का मैदान, ओडिशा तट, कर्नाटक के मैदानी क्षे असम, त्रिपुरा के निचले क्षेत्र तथा शिवालिक घाटी में मिलते हैं। राजस्थान में उपलब्ध प्राकृतिक संसाध का अधिकतम उपयोग करने हेतु इस प्रकार के अधिवास होते हैं।
- विखंडित अधिवास – ऐसे अधिवास में केन्द्र में सघन बसाहट होती है। इसके चारों ओर पल्ली, पुरवा बिखरे हुए बसे होते हैं। सघन आवास की तुलना में यह अधिवास अधिक स्थान घेरते हैं। ऐसे अधिवास मणिपुर में नदियों के सहारे, म.प्र. के मण्डला. बालाघाट तथा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में मिलते हैं।
- पल्ली पुरवा अधिवास इस प्रकार के अधिवास कई छोटी इकाईयों में बिखरे रूप में बसे रहते हैं। मुख्य अधिवास का अन्य अधिवासों पर ज्यादा प्रभाव नहीं होता है। इन आवासों के बीच खेत होते हैं। सामान्यतः सामाजिक व जातीय कारकों द्वारा ऐसे आवास प्रभावित होते हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें पल्ली, पारा, पुरवा, मोहल्ला, घानी आदि कहते हैं। इस प्रकार के अधिवास पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और तटीय मैदानों में पाये जाते हैं।
- प्रकीर्ण या बिखरे अधिवास इन अधिवासों को एकाकी अधिवास भी कहते हैं। इन अधिवासों की
इकाईयाँ छोटी-छोटी व घरों का समूह छोटा होता है। इनकी संख्या 2 से 60 हो सकती है। ऐसे अधिवास एक बड़े क्षेत्र में बिखरे होते हैं। छोटा नागपुर का पठार, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि में ऐसे अधिवास मिलते है जो जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र हैं। उपर्युक्त सभी आवासों में निम्नलिखित प्रतिरूप पाये जाते हैं।
- रेखीय प्रतिरूप इस प्रकार के प्रतिरूप बहुधा मुख्य मार्गो, रेल मार्गो, नदियों के किनारे मिलते हैं।
- आयताकार प्रतिरूप कृषि जोतों के चारों ओर ऐसे प्रतिरूप विकसित होते हैं। सड़कें आयताकार होती है, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे अधिवास मिलते हैं।
- वर्गाकार प्रतिरूप ऐसे अधिवास मुख्यतः पगडंडियों
व सडकों के मिलन स्थल से संबद्ध होते हैं। ऐसे अधिवासों का संबंध का विस्तार कभी-कभी गाँवों में उपलब्ध चौकोर वर्गाकार क्षेत्र में ही करने की बाध्यता से होता है।
- वृत्ताकार प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप के अधिवास में सघन आबादी के कारण आवासीय इकाईयाँ बहुत अधिक सटकर बसी रहती है। मकानों की बाहरी दीवारें आपस में सटी होने से यह एक श्रृंखलाबद्ध सघन इकाई जैसा लगता है। यमुना के ऊपरी भाग, मालवा क्षेत्र, पंजाब, गुजरात राज्य में ऐसे अधिवासों के प्रतिरूप मिलते हैं।