जटिल अंतर्राष्ट्रीय संघियाँ
उन्नीसवीं सदी के अन्त से ही यूरोप के देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था और सारे महत्वपूर्ण देश यह मानकर चल रहे थे कि देर-सबेर युद्ध होने ही वाला है लेकिन युद्ध में वे अकेले न पड़ जाएँ, यह सोचकर लगभग सारे देशों ने अन्य कुछ देशों से गुप्त संधियों कर रखी थीं। उनमें ऐसी शर्तें थीं कि यदि एक देश किसी दूसरे देश से युद्ध करता है तो दूसरा देश उसकी मदद करेगा। उदाहरण के लिए पहले विश्व युद्ध में।
निर्णायक भूमिका निभाने वाली कुछ संधियों इस प्रकार थीं-
त्रिदेशीय संधि सन् 1882 में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली के बीच यह संधि हुई थी जिसके अनुसार अगर इनमें से किसी देश पर फ्रांस या रूस द्वारा आक्रमण किया गया तो बाकी दो देश युद्ध में उतरकर उसकी सहायता करेंगे।
त्रिदेशीय समझौता जर्मनी, ऑस्ट्रिया और इटली की संधि के द्वारा रूस और फ्रांस को अलग-थलग पड़ने का खतरा था। वे दोनों जर्मनी की बढ़ती ताकत और आक्रामकता से चिन्तित थे। ब्रिटेन भी जर्मनी के नौसैनिक ताकत से चिन्तित था। अतः ब्रिटेन, रूस और फ्रांस ने मिलकर एक समझौता 1907 में इस शर्त पर किया कि यदि उनमें से किसी एक पर कोई अन्य देश आक्रमण करे तो वे एक-दूसरे की मदद करेंगे।
इनके अलावा जर्मनी ने तुर्की साम्राज्य से एक समझौता किया कि अगर जर्मनी या ऑस्ट्रिया के विरुद्ध रूस युद्ध में उतरेगा तो तुर्की जर्मनी का साथ देगा। दूसरी ओर रूस ने सर्बिया से समझौता कर रखा था कि अगर ऑस्ट्रिया उस पर हमला करे तो रूस सर्बिया की सहायता करेगा।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि सारे देश समझौतों के जटिल जाल बुनकर बैठे थे। पूरा यूरोप दो बड़े गुटों में बँटा हुआ था। एक तरफ जर्मनी और दूसरी ओर ब्रिटेन के नेतृत्व वाले देश थे। दोनों गुटों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था।
इसी बीच सर्बिया में राष्ट्रवादियों ने ऑस्ट्रिया के राजकुमार व राजवधु की हत्या कर दी। अब ऑस्ट्रिया को सर्बिया पर हमला करने का मौका मिल गया। रूस, सर्बिया की मदद के लिए युद्ध में उतरा तो जर्मनी, ऑस्ट्रिया की मदद के लिए तैयार हो गया।