युद्ध में सैनिक

युद्ध में सैनिक

युद्ध की घोषणा होते ही हर देश की सरकार व्यापक पैमाने में सैनिकों की भर्ती में जुट गई। ज़्यादातर देशों में युवाओं को ज़बरदस्ती सेना में भर्ती कराया गया। इनमें ज़्यादातर अत्यन्त गरीब किसान और मज़दूर परिवारों के युवा शामिल थे। आम तौर पर सेना के अफसर उच्च व अभिजात्य वर्ग के होते थे जो गरीब किसान व मज़दूरों को महज़ भेड़ों की तरह देखते थे।

उन्हें बिना सोचे समझे मौत के मुँह में ढकेलने से नहीं कतराते थे। उदाहरण के लिए, फ्रांस के वरदून शहर पर जो हमला हुआ था वह लगभग दस महीने तक चला। उस युद्ध में कम-से-कम 280,000 जर्मन सैनिक और 3,15,000 फ्रेंच सैनिक मारे गए।

सोम्म नाम की जगह पर हुई लड़ाई में एक दिन में ब्रिटेन के करीब 20,000 सैनिक मारे गए और 35,000 बुरी तरह घायल हो गए। साल भर चली सोम्म की लड़ाई में ब्रिटेन के लगभग चार लाख, फ्रांस के दो लाख और जर्मनी के छह लाख सैनिक मारे गए।

विरोधी सेना को बढ़ने से रोकने और छुपकर युद्ध करने के लिए हर देश अपने कब्ज़े की ज़मीन पर लम्बी खाई (ट्रॅच) खोदकर उसमें सैनिकों को ठहराते थे ताकि वे बंदूक का निशाना न बन पाएँ और सुरक्षित स्थान से गोली चलाएँ। सैनिकों को कई महीने ठंड और बरसात में इन ट्रैचों में अत्यन्त दयनीय हालातों में रहना पड़ता था।

खाइयों में सैनिकों का जीवन बहुत कठिन था। सैनिक गड्‌ढ़ों के अंदर कीचड़ में रहते, वहीं गश्त करते, खाते और सोते थे। मरे हुए सैनिकों की लाशों के ढेर, लाशों को खाते चूहे, सड़ती हुई लाशें और चारों ओर फैले मल की बदबू जुएँ और खुजली ने इन गड्‌ढ़ों में रह रहे सैनिकों के जीवन को अमानवीय बना दिया था।

उन दिनों एंटीबायोटिक दवाओं का आविष्कार नहीं हुआ था जिसके कारण मामूली चोट लगने पर भी अस्वच्छ खाइयों में रहने वाले सैनिक संक्रमण के शिकार हो जाते थे। पहली बार सैनिकों को भारी मात्रा में तोप-गोलों का सामना करना पड़ा। ये गोले भारी होने के साथ-साथ बहुत बड़े विस्फोट करते थे जिससे ज़मीन पर गहरे गढ्ढे हो जाते थे।

इनका ऐसा प्राभाव होता था कि सैनिक अपना दिमागी संतुलन खोकर इधर-उधर भागने लगते थे। तब या तो वे विरोधियों से मारे जाते या अपने ही सेना द्वारा मारे जाते थे। काफी समय बाद में सैनिक चिकित्सक यह समझने लगे कि यह एक तरह की दिमागी बीमारी है जिसे उपचार द्वारा ठीक किया जा सकता है। फिर भी युद्ध से लौटे सैनिक कई वर्षों तक मानसिक तनाव और बीमारियों से ग्रसित रहे।

ऐसी हालत थी उन सैनिकों की जो युद्ध में लड़ रहे थे। बहुत बड़ी संख्या में सैनिकों को विरोधी सेना द्वारा बंदी भी बना लिया जाता था। जर्मनी जो कि एक साथ कई देशों से लड़ रहा था, ने सबसे अधिक युद्ध बंदी बनाए। उनके युद्ध कैदी शिविरों में विभिन्न देशों के लगभग 25 लाख कैदी थे। ब्रिटेन और फ्रांस ने भी लगभग तीन-तीन लाख कैदी अपने कैंपों में रखे थे।

युद्ध बंदियों को बहुत ही दयनीय हालातों में और अपमानजनक परिस्थितियों में रखा जाता था। बंदी बनाने वाले युद्ध कैदियों को घृणा से देखते थे और उन पर होने वाले खर्च को फिजूल खर्च मानते थे। हालाँकि कई अन्तर्राष्ट्रीय संधियाँ थीं जिनमें युद्ध बंदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने का आग्रह था पर ज्यादातर देश इनका पालन नहीं करते थे।

प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की ओर से लगभग 13 लाख भारतीय सैनिक शामिल हुए जिन्हें आफ्रीका, ईराक और फ्रांस में लड़ने के लिए भेजा गया था। इनमें से लगभग 74000 सैनिक मारे गए।

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