युद्ध का जनसामान्य पर प्रभाव
यह पहला ऐसा युद्ध था जिसने किसी देश के सभी लोगों को अपनी चपेट में ले लिया इस तरह के युद्ध को पूर्ण युद्ध (Total War) कहा जाने लगा। जो लोग युद्ध क्षेत्र में रह रहे थे उन्हें बेघर होना पड़ा, उनके घर, खेत आदि ध्वस्त किए गए। उन्हें आए दिन विरोधी सेना की लूटपाट, बलात्कार जैसे जुल्म का सामना करना पड़ा। बेल्जियम, फ्रांस, पोलैंड, रूस आदि देशों में यह सर्वाधिक रहा।
सभी सरकारें अपनी जनता का समर्थन पाने के लिए युद्ध उन्माद पैदा करने लगीं जिसमें देशभक्ति के साथ-साथ विरोधी देश के प्रति आक्रोश और घृणा पैदा की जाती थी। स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों से लेकर पोस्टर, नाटक जैसे सांस्कृतिक माध्यमों का उपयोग इसके लिए किया गया।
युद्ध के शुरू के वर्षों में आम जनता पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा और वह बड़े उत्साह के साथ युद्ध के प्रयासों में जुट गई। अक्सर लोगों का प्रकोप अपने देश में ही रह रहे भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर पड़ा। कई देशों में इन अल्पसंख्यकों को अलग शिविरों में पुलिस की निगरानी में रहना पड़ा। शुरुआती समय में युद्ध उन्माद के चलते लाखों युवक सेना में भर्ती हुए और देश के लिए मरने-मारने के लिए निकल पड़े।
धीरे-धीरे जब युद्ध की वास्तविक सच्चाई उभरने लगी तो हर देश में युद्ध समाप्ति और शान्ति बहाली की माँग उठने लगी। युद्ध में लगभग हर परिवार का कोई-न-कोई सदस्य सेना में भर्ती हुआ था जो या तो लौटा ही नहीं या अपाहिज होकर लौटा। वहीं उन परिवारों को कई अन्य रूपों में युद्ध की कीमत चुकानी पड़ी। युद्ध के चलते खाद्य पदार्थों की बहुत कमी होने लगी।
इसका एक कारण यह था कि सरकारें अपनी सेनाओं के लिए खाद्य पदार्थ भारी मात्रा में खरीद रही थीं जिससे सामान्य बाज़ार में उनका अभाव होने लगा। दूसरा कारण यह था कि हर देश के भोजन में कई ऐसी वस्तुएँ थीं जिनकी आपूर्ति दूसरे देशों से आयात से होती थीं जो अब युद्ध के कारण बुरी तरह प्रभावित हो गया।
कई देशों की सरकारों ने आम लोगों को न्यूनतम खाद्य पदार्थ मिले इसके लिए राशन दुकानों के द्वारा वितरण शुरू कर दिया।
इसी तरह कारखानों को अब युद्ध सामग्री के निर्माण के लिए परिवर्तित किया गया जिसके कारण दैनिक उपयोग की चीज़ों के उत्पादन में कमी आई। इन सब बातों के चलते खाद्य पदार्थ और अन्य ज़रूरी सामग्री की कीमतें दुगनी या तिगुनी हो गई मगर मज़दूरों के वेतन में अपेक्षाकृत बढ़ोत्तरी नहीं हुई।
मज़दूर यह देख रहे थे कि कारखानों के मालिक युद्ध की बढ़ती माँग और बढ़ती कीमतों के चलते अधिक मुनाफा कमाकर मालामाल हो रहे थे मगर कामगारों की मज़दूरी नहीं बढ़ा रहे थे। अस्पताल, चिकित्सा जैसी सार्वजनिक सुविधाएँ भी अब युद्ध के लिए उपयोग की जाने लगीं जिस कारण सामान्य नागरिकों को कष्ट उठाना पड़ा। साथ ही जब युद्ध में मरने वालों की संख्या लगातर बढ़ती गई और घर-घर में वयस्कों की मौत की खबर आने लगीं तो लोगों का आक्रोश उन लोगों की तरफ बढ़ा जो युद्ध उन्माद पैदा करके पूरे विश्व को अपने स्वार्थ के लिए युद्ध में झोंक रहे थे।
युद्ध शुरू होने के तीन साल बाद सन् 1917 से लगभग हर देश में युद्ध के खिलाफ जनमानस बनने लगा। जर्मनी, रूस, तुर्की, ऑस्ट्रिया आदि देशों में आम लोगों ने अपनी ही सरकारों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिए।
मज़दूर वेतन वृद्धि की माँग को लेकर हड़ताल करने लगे। हर देश में लोग यह विश्वास करने लगे कि उनके देश में लोकतंत्र न होने के कारण ही सरकारें इतनी आसानी से ऐसे घोर युद्ध में उतर गईं। यदि लोकतंत्र स्थापित होता तो सरकारों को लोगों की सुननी होती और उनकी इच्छा के विरुद्ध ऐसे युद्ध नहीं होते।
युद्ध समाप्त होते ही पुराने और विशाल साम्राज्य हमेशा के लिए खत्म हो गए और उन देशों में लोकतांत्रिक क्रांतियों की लहर फैली। जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, तुर्की, रूस इन सभी देशों में जो साम्राज्य स्थापित थे उन्हें खत्म करके वहाँ लोकतांत्रिक सरकारें बहाल हुई।
भारत में भी इस युद्ध का गहरा असर पड़ा। एक ओर युद्ध में भारतीय सैनिकों को भेजा गया। दूसरी ओर युद्ध के लिए धन जुटाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने करों में भारी वृद्धि की। इसके अलावा खाद्य पदार्थ और अन्य सामग्री का युद्ध में उपयोग के कारण उनकी कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी हुई जिससे जनसामान्य को बहुत कष्ट उठाना पड़ा।
इस कारण पूरे देश में उपनिवेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र होते गए। साथ ही भारतीय उद्योगपतियों के लिए यह एक सुनहरा मौका मिला। वे अपना उत्पादन अधिक कीमत पर बेचकर मालामाल हुए।