शान्ति समझौते
सन् 1919-20 में विजयी राष्ट्र, जिनमें ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और इटली प्रमुख थे, ने पराजित देश के प्रतिनिधियों के साथ समझौते किए। जर्मनी के साथ वरसाई संधि ऑस्ट्रिया के साथ सेंट जर्मन संधि, हंगरी के साथ ट्रियानैन संधि, तुर्की के साथ सेने की संधि और बुल्गारिया के साथ न्यूली की संधि की गई। इनमें सबसे महत्वपूर्ण संधि जर्मनी के साथ की गई वरसाई की संधि थी।
युद्ध के बाद किस तरह की व्यवस्था हो इस पर शुरू से ही चर्चा चल रही थी। रूस की क्रांतिकारी सरकार ने नवंबर सन् 1917 में पहला कदम उठाते हुए ऐलान किया कि वह बिना कोई शर्त युद्ध से हट रही है और उसने अन्य युद्धरत देशों से अपील की कि वे न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक शान्ति के लिए तत्काल कदम उठाएँ।
इससे उसका आशय था कि किसी देश या राष्ट्र को (यूरोप में या उपनिवेशों में) उसकी सहमति के बिना दूसरे राज्य में बलात् मिलाया न जाए, किसी देश पर युद्ध हर्जाना न लगाया जाए और सरकारों के बीच गुप्त संधियों की जगह प्रकाशित संधियाँ हों जिनकी स्वीकृति उन देशों में लोकतांत्रिक रूप से चुने गए संसदों द्वारा हो। ये सिद्धांत ज़्यादातर यूरोपीय सरकारों को पसंद नहीं आए, मगर युद्ध से थके-हारे सैनिकों व मज़दूरों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए।
पूरे यूरोप में इनके समर्थन में जुलूस निकलने लगे और चर्चा होने लगी। इनकी लोकप्रियता को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति यूड्रो विल्सन ने शान्ति के लिए 14 बिन्दुओं की घोषणा की। इन पर रूसी ऐलान का प्रभाव देखा जा सकता है। विल्सन ने भी गुप्त संधियों का विरोध किया। हर राष्ट्रीय समूह ने आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया और सारे युद्धस्त देशों में लोकतंत्र की स्थापना पर जोर दिया।
साथ ही विल्सन ने सभी देशों के बीच खुले और बेरोकटोक व्यापार, हर देश के लिए समुद्री यातायात पूरे रूप में खुला हो, निरस्त्रीकरण और एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जो देशों के बीच के विवादों का निपटारा करे और उनके बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा दे की वकालत की।
विल्सन के 14 बिन्दुओं में शर्त भी थी कि जर्मनी ने सन् 1870 से जो भी क्षेत्र दूसरे देशों से हथियाये थे उनकी वापसी होगी और पोलैंड एक स्वतंत्र राज्य बनेगा। रूस के संदर्भ में विल्सन का मानना था कि वहाँ जार की तानाशाही की जगह लोकतंत्र की स्थापना का स्वागत किया जाना चाहिए और रूस के लोगों की अपने पसंद की सरकार गठित करने की
स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। विल्सन ने युद्ध के लिए किसी एक देश को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया और इस कारण किसी देश पर इसके लिए जुर्माना लगाने की बात नहीं की। जर्मनी के नये शासकों ने विल्सन के सिद्धांतों को मानते हुए युद्धविराम को स्वीकार किया।
हर विजयी देश की अपनी कल्पना और कूटनीतिक ज़रूरतें थीं। फ्रांस, जिसे युद्ध से सबसे अधिक नुकसान झेलना पड़ा, चाहता था कि जर्मनी को स्पष्ट रूप से दोषी ठहराया जाए और वह हर मुल्क को हर्जाना दे और जर्मनी को इस तरह तबाह किया जाए कि वह फिर से कभी हमला करने की स्थिति में न हो।
सन 1871 में फ्रांस से जो इलाके जर्मनी ने छीने थे उन्हें वापस फ्रांस को दिया जाए ये वे इलाके थे जो जर्मन उद्योगों के लिए अति महत्वपूर्ण थे जहाँ से उन्हें कोयला और लौह अयस्क मिलता था। इस तरह फ्रांस जर्मनी को दोहरी क्षति पहुँचाना चाहता था ताकि यह कभी फिर से सर न उठा पाये। ब्रिटेन भी जर्मनी को सामरिक तौर पर कमज़ोर करना चाहता था।
मगर आर्थिक रूप से नहीं क्योंकि वह चाहता था कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो ताकि ब्रिटेन उससे व्यापार कर सके। लेकिन ब्रिटेन को उपनिवेशों व यूरोप में लोकतंत्र की स्थापना और राष्ट्रों के खुद के भविष्य के अधिकार तय करने या फिर समुद्री यातायात को खुला करने को लेकर गहरी असहमति थी।
फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, ये तीनों चाहते थे कि रूस में जो क्रांति हुई उसे विफल करें ताकि उत्तका प्रभाव उनके अपने अपने देश के गरीब मज़दूरों व सैनिकों पर न पड़े। इसलिए वे न केवल रूस को शान्तिवार्ता में सम्मिलित नहीं करना चाहते थे बल्कि चाहते थे कि सभी देश क्रांतिकारी सरकार के विरुद्ध लड़ रहे ताकतों का समर्थन करें। वे रूस और अपने बीच रूस-विरोधी राज्यों की एक कतार खड़ी करना चाहते थे।