कृषि का सामूहीकरण: 1917 के बाद भूस्वामियों की ज़मीन किसानों के बीच वितरित होने से अधिकांश
कृषक मध्यम दर्जे के किसान बन गए और कुछ बड़े किसान भी थे लेकिन खेती के तरीके अभी भी पारंपरिक थे और उत्पादन कम था। इस बात को देखते हुए स्तालिन ने कृषि क्षेत्र में भारी बदलाव लाने की पहल की। इसके तहत किसानों से कहा गया कि वे अपने-अपने खेतों को मिलाकर विशाल सामूहिक फार्म बनाएँ ताकि बड़े पैमाने में खेती की जा सके और खेतों में मशीनों व अन्य आधुनिक तरीकों का उपयोग किया जा सके।
अधिकांश छोटे और मध्यम किसान इसके लिए तैयार हुए मगर ज्यादातर बड़े किसान और कुछ मध्यम किसानों ने इसका विरोध किया। विरोध करने वालों पर ज़ोर-ज़बरदस्ती की गई और वे लाखों की संख्या में गिरफ्तार किए गए, कालापानी भेजे गए या मार डाले गए। इस ज़ोर-ज़बरदस्ती के कारण कुछ वर्ष रूस की कृषि संकटग्रस्त रही।
फलस्वरूप 1932-34 के बीच भीषण अकाल पड़ा और लाखों लोग भुखमरी के कारण मरे लेकिन 1936 तक कृषि सामूहीकरण पूरा हुआ और रूस में निजी खेती लगभग समाप्त हो गई। 1937 के बाद कृषि का तेज़ी से विकास हुआ और वह औद्योगीकरण का फायदा उठाते हुए अपनी उत्पादकता को तेज़ी से बढ़ा सका
क्रांति के बाद सोवियत रूस के विकास को लेकर काफी विवाद रहा है और उसके विरोधाभासों पर कई इतिहासकारों ने ध्यान आकृष्ट किया है।
एक ओर पहली बार इतिहास में अभिजात्य भूस्वामियों, पूँजीपतियों. व्यापारियों व शाही दरबारियों के बिना गरीब मज़दूरों व किसानों ने एक नए समाज की रचना की। इस समाज में सभी को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि ज़रूरी सुविधाओं की पहुँच समान रूप से बनी। बेरोज़गारी लगभग समाप्त हो गई और सबको काम मिला।
1929-32 के बीच पूँजीवादी देशों में जो भीषण आर्थिक मंदी आई. उसका रूस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महिलाओं को समाज में समान अधिकार प्राप्त हुआ। निरक्षरता में भारी कमी आई और सबके लिए समान शिक्षा की व्यवस्था की गई जिसमें विषयों की पढ़ाई के साथ-साथ शारीरिक श्रम द्वारा उत्पादक कार्य पर भी जोर दिया गया।
रूस के अधिकांश पड़ोसी देश जो पूँजीवादी थे. लगातार इसी प्रयास में रहे कि वह सफल न हो और रूस के विकास में तरह-तरह की बाधाएँ डालते रहे। लेकिन इसके बावजूद सोवियत रूस अपने आपको आर्थिक रूप से मज़बूत कर सका और 1940 तक एक आधुनिक शक्ति के रूप में उभरा।
लेकिन जो राजनैतिक व्यवस्था सोवियत रूस में बनी उसमें बहु-दलीय प्रणाली की जगह एक साम्यवादी दल को ही मान्यता प्राप्त थी। इस कारण लोगों के सामने राजनैतिक विकल्प मौजूद नहीं थे।
इसके अलावा वहाँ शासन की आलोचना करने तथा वैकल्पिक सोच प्रस्तुत करने पर भारी रोक लगी थी और अक्सर शासन की नीतियों के विरोध करने वाले चाहे वे साम्यवादी दल के क्यों न हों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जाता था और मार डाला जाता था। इस तरह जहाँ एक ओर गरीबों को राजनीति में भाग लेने का मौका मिला वहीं उनके पास विकल्प न होने के कारण लोकतंत्र का पूरा विकास नहीं हो पाया।
सोवियत क्रांति का पूरे विश्व पर गहरा असर पड़ा। दूर-दराज़ के देशों में और खासकर उपनिवेशों में स्वतंत्रता और गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को इससे प्रेरणा मिली और वे भी रूस की राह पर वलने का प्रयास करने लगे।
रूस की साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी संगठन बनाया गया और हर देश में उस तरह की पार्टियों का निर्माण हुआ। इनके आंदोलनों के दबाव से हर देश में मज़दूरों के कल्याण व किसानों को ज़मीन पर अधिकार देने के लिए कानून बने और ठोस व्यवस्थाएँ बनीं।